Saturday, February 13, 2010

पर्यावरणवादियों के तर्कशास्त्र के परे

पर्यावरण के प्रति उत्तर-आधुनिकों का रवैया मिथकीय और विज्ञान विरोधी है। पर्यावरण को ये लोग पूंजीवाद के आम नियम से पृथक् करके देखते हैं। कायदे से पर्यावरण के बारे में मिथों को तोड़ा जाना चाहिए। विज्ञान-सम्मत दृष्टिकोण का प्रचार किया जाना चाहिए। पर्यावरण के प्रश्न सामाजिक विकास के प्रश्न हैं। इनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। परंपरागत संगठनों ने इन प्रश्नों की लम्बे समय तक उपेक्षा की है। स्वैच्छिक संगठनों के संघर्षों के कारण पर्यावरण की ओर ध्यान गया है। धीरे-धीरे प्रकृति और पर्यावरण के प्रश्न आम जनता में जनप्रिय हो रहे हैं। पूंजीवादी औद्योगिक क्रान्ति के गर्भ से विकास की जो प्रक्रिया शुरु हुई थी, वह आज अपनी कीमत मांग रही है। विकास के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन प्राकृतिक विनाश की हद तक ले गया।
मनुष्य और प्रकृति का अविभाज्य संबंध है। प्रकृति का समाज और समाज का प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। कोई भी राष्ट्र प्रकृति का विनाश करके विकास नहीं कर सकता। इसी तरह कोई भी राष्ट्र औद्योगिक विकास के बिना विकास नहीं कर सकता। इसीलिए प्रकृति और विकास के बीच में संतुलन जरुरी है। आज पृथ्वी के किसी भी हिस्से में प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है तो उसका समूची दुनिया पर दुष्प्रभाव पड़ता है। अत :प्रकृति के विनाश को रोकना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल की राय है कि पर्यावरण रक्षा के नाम पर चल रहे अधिकांश आन्दोलन विज्ञान विरोधी हैं।
पर्यावरण की रक्षा के नाम पर आज तरह-तरह के संगठन सक्रिय हैं। इनमें ऐसे लोग भी हैं जिनके पर्यावरण एवं विज्ञान दोनों को लेकर सरोकार हैं। ये लोग पर्यावरण के प्रति विज्ञानसम्मत समझ बनाने पर जोर देते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी इच्छा और आकर्षण के आधार पर कार्यरत हैं। इनमें से ज्यादातर मिथों के आधार पर काम करते हैं और मिथों की सृष्टि करते हैं।
प्रकृति को निर्ममता से लूटने की प्रवृत्ति मानवजाति के भूतकाल की उपज और उस जमाने का अनिवार्य परिणाम है, जब उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर बहुत नीचा था और प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष मनुष्य के उत्पादन का अभिन्न अंग था। किन्तु आज मनुष्य प्रकृति का गुलाम नहीं है बल्कि स्वामी है। स्वामी होने के बाबजूद मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति बदली नहीं है। वह आज भी प्रकृति को शत्रु समझकर कार्य कर रहा है।
पर्यावरण और प्रकृति संबंधी विवादों की यह विशेषता है कि इसके उपभोग और संरक्षण के प्रश्न जितने महत्वपूर्ण बनते जाते हैं, उनको लेकर उतने ही झूठे तर्कों का शब्दजाल फैलाया जाता है। प्रकृति के संरक्षण, सामाजिक पूर्वानुमान और इन क्षेत्रों में अंतराष्ट्रीय विकास पर नियंत्रण रखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां और इजारेदारियां तरह-तरह के दांव-पेंच खेलती रही हैं।
पारिस्थितिकी विशेषज्ञों और प्रकृति संरक्षकों को कभी-कभी बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्यों कि उन्होंने प्रकृति को प्रदूषित करने वाला कारखाना बंद करा दिया। जिससे मजदूर बेकार हो गए। उन पर ऊर्जा संकट का आरोप लगाया जाता है, उन्हें देशद्रोही घोषित किया जाता है ,क्योंकि ये लोग प्रकृति के बुध्दिसंगत प्रबंध की मांग करते हैं।
प्रकृति के प्रश्न विश्व के प्रश्न हैं। अत: इनके बारे में अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोचने की जरुरत है।पर्यावरण के सवालों पर बहुराष्ट्रीयनिगमों और अमरीका ने सबसे ज्यादा गैरजिम्मेदाराना रवैय्या अपनाया हुआ है। जबकि प्राकृतिक संपदा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल अमरीका ही कर रहा है।
अमरीका की कुल आबादी दुनिया की आबादी का मात्र 6 फीसदी है। किन्तु वह दुनिया के 40 फीसदी संसाधनों का इस्तेमाल करता है। वह अपनी खपत का 40 फीसदी तांबा, 40फीसदी शीशा, आधे से ज्यादा जस्ता, 80 फीसदी एल्यूमीनियम, 99 फीसदी मैगनीज़, और भारी मात्रा में लोहा बाहर से प्राप्त करता है।इससे प्राकृतिक संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है।
आज पर्यावरणवादी उत्तर-आधुनिकों के जरिए उपभोग पर विमर्श चला रहे हैं। उपभोग की सैद्धान्तिकी है ‘इस्तेमाल किया और फेंक दिया’ , ‘ जो चाहे हो जाए’ और ‘ सब कुछ लागू किया जा सकता है’ के नारे बहाने समझा जा सकता है। इन तीन नारों के तहत ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां समूची दुनिया पर हमले बोल रही हैं। रास्ते में यदि पहाड़ खड़ा है और पहाड़ को खोदना इसके इर्द-गिर्द रास्ता बनाने से सस्ता है तो समझो कि पहाड़ के दिन लद गए।
इसी तरह कारखाने का गंदा पानी नदियों एवं झीलों फेंका जाता है, जैसे नदियों और झीलों की जरुरत ही न हो। कारखानों का कचरा समुद्र में फेंका जाता है, गोया समुद्र की जरुरत ही न हो ?सदियों में उगे जंगलो को काटकर कागज बनाया गया, उस पर व्यापारिक इश्तहार छापे गए और इस तरह अगले ही रोज रद्दी का एक और पहाड़ खड़ा कर दिया गया। जंगल की जगह जो खेत जोता गया, दस साल में मिट्टी के कटाव के कारण बेकार हो गया और उसे ‘फेंक’ दिया गया।
अगर वायुमंड़ल में अरबों टन कार्बन डायोक्साइड गैस निसृत हो जाए, नदियों को गंदे नाले का जोहड़ बना दिया जाए, खेतों की मिट्टी को नष्ट किया जाए तथा रासायनिक जहर से विषाक्त बना दिया जाए, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग अपने एकमात्र आश्रय पृथ्वी को ‘फेंक’ रहे हैं। इससे पता चलता है कि निजी उपभोग और निजी स्वामित्व के जमाने में विरासत में मिली मान्यताओं को हमें बदलना चाहिए और विश्व के प्रति एकदम नया दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, ऐसा दृष्टिकोण जो सभी को मान्य हो और जिसमें मानव के अस्तित्व के भौगोलिक, पारिस्थितिकीय, आर्थिक तथा राजनीतिक पहलुओं को ध्यान में रखा जाए, ऐसा दृष्टिकोण, जो समय के प्रवाह तथा प्रभाव का समुचित मूल्यांकन कर सके, लोगों को एक-दूसरे के प्रति तथा प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराने में समर्थ हो।

शाहरुख खान एक्टविस्ट नहीं है राजदीप सरदेसाई

हिन्दी फिल्मों के बादशाह शाहरूख खान की नई फिल्म ‘माई नेम इज़ खान’ आज सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो गई। शाहरूख का कसूर है कि उन्होंने अपने पड़ोसी देश के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध की बात कही है। उन पर आरोप है कि वे पाकिस्तान समर्थक हैं। देशद्रोही हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठन उन से माफी मांगने को कह रहे हैं। शाहरूख खान का कहना है कि उन्होंने कोई ग़लती नहीं की, फिर माफी किस बात की। वे भारतीयता के बारे में पैसोनेट हैं। वे कहते हैं कि मेरी देशभक्ति पर सवाल उठे तो क्या इसे मुझे समझाना पड़ेगा। मैं बंबई में रहता हूँ। मुम्बईकर हूँ। 20 साल से रह रहा हूँ। यह एक आजाद मुल्क है और प्रत्येक भारतीय को हक़ है जब तक वह अपने टैक्स देता है और कोई आपराधिक कर्म नहीं करता तब तक वह निर्बाध रूप से अपना काम कर सके। मैंने मुम्बई से सब कुछ कमाया है। मेरा मुम्बई पर जितना हक़ है उससे ज्यादा मुम्बई का मुझ पर हक़ है। यह मेरी अस्मिता का प्रश्न है कि मैं पहले भारतीय हू¡ बाद में मुम्बईकर। हिन्दी सिनेमा व्यावसायिक सिनेमा है। हमको सबसे बड़ा डर है कि हमारे काम के बाद लोग हंस कर आनंद लें, हमारे काम के कारण लोगों को नुकसान पहुँचे यह हमारा उदे्दश्य नहीं। मेरी पिक्चर देखने जा रहे व्यक्ति को या उसके परिवार को एक भी पत्थर लग जाए यह कोई भी कलाकार नहीं चाहेगा। जब अपने परिवार के लोगों को मैं फिल्म देखने से सुरक्षा कारणों से मना करता हू¡ तो दूसरे लोगों को कैसे कह सकता हूँ कि वे मेरी फिल्म देखने जाएं।
शाहरूख की भारतीय जनता से जो अपील है वह हमारे भारतीय कहलाने पर शर्म पैदा कर रही है। एक आजाद मुल्क में शाहरूख खान के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह किसी भी तरह से नस्ली हमले से कम नहीं है। फासीवाद का यह हमला हिन्दी फिल्मों पर नया नहीं है। यह सबको मालूम है कि हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं और कलाकारों को कई तरह के दबावों में काम करना पड़ता है।
सी एन एन आई बी एन के राजदीप सरदेसाई चाहते हैं कि शाहरूख हर इस तरह के फासीवादी हमले पर बोलें। टैक्सी ड्राइवरों के मुद्दे पर भी उन्हें बोलना चाहिए यानि कि फिल्म अभिनेता के साथ-साथ एक्टिविस्ट की भूमिका भी निभानी चाहिए। शाहरूख एक अभिनेता हैं। अभिनेता से नेतागिरी की मांग करना कहाँ तक जाएज है। एक व्यक्ति अपने पेशे में ईमानदार रहे, लगन और मेहनत के साथ काम करे, इच्छा नहीं है तो एक्टिविस्ट न बने, यह गलत कैसे है? शाहरूख ने अपनी बात साफगोई के साथ रखी कि मैं रियल लाईफ हीरो बनने की कोशिश नहीं करता फिल्मों में बन जाउ यही बहुत है। अब शायद मुझे चड्ढी, बनियान और अन्य चीजों की तरह ही अपनी देशभक्ति का भी प्रचार करना पड़ेगा और इस तरह के अन्य हमलों का विरोध करना पड़ेगा।
शिवसेना के लोगों ने मुम्बई के मुलुण्ड में भारी तोड़फोड़ किया है। इस फिल्म की अग्रिम टिकटों की बिक्री के समय यह सारी घटना घटी। अपने पहले के बयानों से पलटते हुए ‘सामना’ में लेख छपा जिसमें कहा गया कि शिवसैनिक अब शाहरूख की फिल्म का विरोध नहीं करेंगे। लेकिन जब 8 फरवरी को फिल्म की अग्रिम टिकटें बिकनी शुरू हुईं तो शिवसैनिकों ने हंगामा और तोड़फोड़ शुरू किया। 9 फरवरी की सुबह खबरों में दिखाया गया कि करण जौहर पुलिस सुरक्षा के लिए पुलिस के आला अधिकारियों से मिलने गए। उसके दो घण्टे बाद ही शिवसैनिकों की गतिविधियों की खबरें चैनलों की प्रमुख ख़बर बन गई।
फिल्म ‘माई नेम इज़ खान’ के बारे में अभी जो कुछ सामने आया है उससे इतना जाहिर है कि इस फिल्म में सत्ता और प्रशासन के एथनिक सप्रेशन के खिलाफ एक लाईन ली गई है। फासीवादी, नस्लवादी, राष्ट्रवादी पहचानों के ऊपर प्रेम और भाईचारे को, मानवीय रिश्तों को महत्वपूर्ण बताया गया है। भला यह किसी भी फासीवादी दल को कैसे बर्दाश्त हो सकता है। ‘माई नेम इज़ खान’ की जगह इस फिल्म का कोई और नाम शायद एशिया के संदर्भ में नस्लवादी पहचान की पेचीदगियों को इतनी बारीक़ी के साथ नहीं उभार सकता था। समूची पश्चिमी दुनिया के लिए अदर बना हुआ एशियाई समाज जिसकी ताकत से पश्चिम डरता है और जिसे वह कमज़ोर करना चाहता है अपने को इस नाम से आईडेन्टिफाई करता है। विशेष संदर्भ में फासीवादी ताक़तों के लिए भी यह नाम आसानी से हजम होनेवाला नहीं है। संयोग से फिल्म में काम करनेवाला हीरो भी एक खान ही है।
शाहरूख का लंदन में दिया गया बयान कि उन्होंने कोई गलती नहीं की तो क्यों और किससे माफी मांगें करोड़ों भारतीय जनता के दिलों के ज्यादा करीब था। लेकिन यह कोई फिल्म नहीं जिंदगी है! इसमें ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ की तरह जनता निर्दोष को बचाने के लिए हजारों की संख्या में बाहर नहीं निकल जाती है। निकले भी कैसे एक तो वह हिन्दुस्तानी है दूसरे शाहरूख की नियत पर भी संदेह है कहीं वे फिल्म के प्रचार के लिए तो ये सब नहीं कर रहे? राजदीप सरदेसाई के सवाल के जवाब में शाहरूख ने तकलीफ और व्यंग्य के साथ कहा कि हां प्रचार तो बहुत मिल गया, बहुत नाम कमा लिया। शाहरूख की पिछली फिल्मों के रिर्काड देखें तो साफ है कि बिना किसी विवाद के भी उनकी फिल्मों ने भारत की विदेशों की जनता के दिलों पर राज किया है। उनकी किसी फिल्म की सफलता के लिए विवाद आयोजित करवाना जरूरी तो कतई
नहीं।
शाहरूख की खूबी है कि वे बहुत आत्मीय और निजी होकर बड़ी बात कह जाते हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। मीडिया ने इधर कुछ दिनों से लगातार उनकी गतिविधियों की रिपोर्टिंग की है। उनके लंदन में फिल्म के प्रमोशन से लेकर उनके बच्चों के गेम शो में तक में मीडिया उनके साथ रही है। अपने बच्चों की जीत पर टिप्पणी करते हुए शाहरूख कहते हैं कि उनके बच्चे उनसे ज्यादा निडर हैं। उन्होंने उनसे कहा कि पापा आप इंडिया आ जाओ सब ठीक है हम सबको हरा देंगे। इन बच्चों को मराठी भी आती है और वे एक ‘हिन्दू’ मा और ‘मुसलमान’ पिता की संतान हैं। शाहरूख़ का डर निराधार नहीं है कि उनके बच्चे कहीं बाप बनकर उनकी तरह डरने न लगें। वे चाहते हैं देश के सभी बच्चे, सभी नागरिक निर्भय होकर अपनी आजादी को जी सकें। क्या गलत चाहते हैं शाहरूख़। फासीवाद की यह मनोवैज्ञानिक लड़ाई क्या शाहरूख़ हार गए ? भय ही तो पैदा करता है फासीवाद। शाहरूख़ देश के हर नागरिक को निर्भय बनाना चाहते हैं। शाहरूख़ हार नहीं सकते अगर वे वैचारिक समझौता नहीं करते जैसाकि वे अभी टी वी पर कह रहे हैं। व्यक्तियों से मिलना, उनसे संपर्क रखना अलग बात है और इस तरह के फासीवादी हमलों से डरकर वैचारिक रूप में सहमत होना अलग। मैं नहीं जानती गौरी कितनी शर्मिंदा होंगी डरे हुए शाहरूख़ को देखकर। अभी-अभी खबर आ रही है कि घाटकोपर में भी शिवसेना के हमले शुरू हो गए हैं।
बाल ठाकरे अपनी थोकशाही के जरिए शाहरूख को अपने झण्डे तले ले लेना चाहते हैं। शिवसेना जो इस समय इतना हुंकार भर रही है उसका मकसद शाहरूख के साथ अपनी ट्यूनिंग पैदा करना है। दूसरी ओर यही शिवसेना आई पी एल के मसले पर गुलगपाड़ा मचा के शरद पवार के साथ भी अपने संबंधों को अपनी तरफ झुका कर रखना चाहती है। शाहरूख और आई पी एल दोनों पर शिवसेना की हुंकार हाल ही के विधानसभा चुनावों में शिवसेना की जबर्दस्त पराजय से ध्यान हटाने के लिए और सस्ती लोकप्रियता के जरिए अपने कैडरों को चंगा करने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है। शाहरूख की फिल्म चले या न चले, आई पी एल हो या न हो, आई पी एल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी खेलें या न खेलें, कोलकाता नाईट राइडर में पाकिस्तान के खिलाड़ी खेलें या न खेलें इन सबसे शिवसेना को कोई लेना-देना नहीं है। शिवसेना का मूल उदेश्य है महाराष्ट्र में अपनी खोई हुई जमीन को हासिल करना।

लोकतंत्र में धनकुबेर बनते नौकरशाह

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तीन आईएएस अफसरों सहित कई अन्य सरकारी मुलाज़िमों के ठिकानों पर इन्कम टैक्स के छापों में अब तक करीब 500 करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता चला है। इसमें 7.7 करोड़ की नकदी और ज़ेवरात भी शामिल है। कुबेर का खज़ाना साबित हो रहीं इन अफ़सरों की तिजोरियाँ महज़ एक बानगी हैं। प्रदेश ही क्यों समूचे देश में भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाकर इहलोक की वैतरिणी पार करने वालों की फ़ेहरिस्त दिन ब दिन लम्बी होती जा रही है। प्रशासनिक पारदर्शिता और नियम कायदों से कामकाज का ढ़ोल पीटने वाली सरकार की ऎन नाक के नीचे नौकरशाहों के सरकारी बंगलों से करोड़ों के नोट मिलना साफ़ बताता है कि किस तरह आम जनता की गाढ़ी कमाई से नये दौर के “धनकुबेर” तैयार हो रहे हैं।

प्रमुख सचिव स्तर के दोनों अफसरों अरविंद जोशी तथा टीनू जोशी और उनकी काली कमाई ठिकाने लगाने में मददगार लोगों के घरों पर आयकर विभाग के छापे में काली कमाई के ढेर सारे सबूतों के अलावा नकदी ही इतनी मिली कि नोट गिनने की मशीन लगाना पड़ी जो कई घंटे चलती रही। आयकर के शिकंजे में फ़ँसे आईएएस दंपति अहम विभागों की जिम्मेदारियाँ निभा रहे थे। सवाल यह उठता है कि अफसरों के पास इतनी संपत्ति कहाँ से आई कि नोट गिनने के लिए मशीन बुलाना पड़ी।

प्रदेश के आला अफसरों की काली कमाई आयकर विभाग के हत्थे चढ़ने का यह कोई पहला मामला नहीं है। पहले भी एक आला अफ़सर और मंत्री के परिवार के ठिकानों पर ऎसी ही कार्रवाई की गई थी। तब मंत्री को तो कुछ महीनों के लिए ही सही कुर्सी छोड़ना पड़ी, लेकिन अफसर का कुछ नहीं बिगड़ा। ये घटनाएँ बताती हैं प्रदेश में भ्रष्टाचार चरम पर है। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण भ्रष्टाचार पर काबू पाना नामुमकिन हो गया है।

मुख्यमंत्री स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने के अभियान में जुटे हैं। उधर वे ग्रामीण इलाकों में जा-जाकर आम जनता को भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने की शपथ दिलाते घूम रहे हैं। इधर नौकरशाह सूबे के हुक्मरानों के हमजोली बनकर सरकारी खज़ाने को अपनी मिल्कियत में तब्दील करने के खेल में मशगूल हैं। सरकारी सामान की खरीद फ़रोख्त नौकरशाहों का सबसे पसंदीदा शगल बन गया है। नियमों को ताक पर रखकर आला अफ़सर सप्लायर और निर्माताओं से गठजोड़ कर जमकर कमीशनखोरी में जुटे हैं।

मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम की आड़ लेकर करोड़ों रुपए का गड़बड़झाला किया जाता है। इसके अलावा प्रदेश में 700 करोड़ के पोषाहार की योजना में भी बंदरबाँट का सिलसिला बदस्तूर जारी है। पोषण आहार आपूर्ति का काम ठेकेदारों से छीनने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद “नाम तेरा, दाम मेरा” की तर्ज़ पर एमपी एग्रो की आड़ में ठेकेदार ही पोषाहार सप्लाई कर रहे हैं। सरकारी खज़ाने की खुली लूट में अफ़सर, नेताओं और ठेकेदारों की तिजोरियाँ भर रही हैं और सूबे के नौनिहालों के पेट खाली हैं।

आईएएस अरविंद जोशी के घर अकूत दौलत मिलने के बाद अब जल संसाधन से जुड़ी 600 करोड़ रुपए की सामग्री की खरीदी भी शक के घेरे में है। जोशी जल संसाधन महकमे के प्रमुख सचिव थे। दरअसल पिछले पाँच वर्षों में प्रदेश का सिंचाई रकबा और विभाग में भ्रष्टाचार बढ़ने की रफ़्तार काफ़ी तेज़ रही। भाजपा सरकार के सत्ता में आते ही जल संसाधन विभाग में पैसे की बाढ़ आ गई। विभाग का बजट तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक का हो गया, विश्व बैंक तथा अन्य स्त्रोतों से सिचाई का रकबा बढ़ाने के लिए राज्य सरकार ने पैसा लिया। राज्य में विभिन्न योजनाओं में दस हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए गए। जाँच एजेंसियों को मिली शिकायतों का पुलिंदा एक हजार करोड़ रुपए से अधिक धनराशि घोटाले की भेंट चढ़ जाने की बात कहता है। इसका प्रमाण है हाल के महीनों में विभाग के सौ से अधिक इंजीनियरों का निलंबन।

ग्वालियर और शिवपुरी जिले के हर्षी प्रोजेक्ट में ईओडब्ल्यू की जाँच में लगभग दो सौ करोड़ का भ्रष्टाचार सामने आया है। शायद यह पहली परियोजना होगी, जिसके 306 करोड़ रुपए के बजट में 269 करोड़ के पाइप खरीद लिए गए। इस मामले में दो दर्जन से अधिक इंजीनियरों को निलंबित किया गया है, लेकिन अभी तक किसी के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज नही कराया गया। इसी तरह बाणसागर परियोजना में लगभग सौ करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है।

रिश्वत के पैसे से “जीवन की सुरक्षा” का चलन अब आम हो चला है। प्राइवेट बैंकों की बीमा पॉलिसियों का काली कमाई को उजला बनाने की कारगर तरकीब के तौर पर इस्तेमाल भी तेज़ी से बढ़ा है। आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल की शाखा प्रबंधक सीमा जायसवाल के पास मिले दस्तावेज़ों में प्रदेश के नौकरशाहों और कई नेताओं के निवेश का ज़िक्र इसी ट्रेंड का पुख्ता सबूत हैं। आयकर विभाग के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सर्किल के सूत्रों के अनुसार, सीमा जायसवाल के यहां छापे के दौरान मिले दस्तावेजों की जाँच के आधार पर छापे की कार्यवाही को फ़िलहाल खत्म नहीं कहा जा सकता। सीमा द्वारा अन्य अफसरों के नाम से की गई पॉलिसियों का विवरण बीमा कंपनी से मंगाया जायेगा, जिसके आधार पर आगे की कार्रवाई तय होगी।


प्रमुख सचिव स्तर के दोनों अफसरों अरविंद जोशी और टीनू जोशी को आनन फ़ानन में निलंबित कर राज्य सरकार ने यह संकेत देने का प्रयास किया है कि भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सरकार की मंशा पर संदेह का कोई प्रश्न भी नहीं है, लेकिन एक सच यह भी है कि दागदार अफसरों की फेहरिस्त खासी लम्बी है। इनमें से आधा दर्जन के खिलाफ़ लोकायुक्त में जाँच लंबित है। कई मामले विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं, मगर सरकार ने इनके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। इनमें से ज्यादातर ऎसे हैं जिनके दामन पर लगे दाग ही उनकी खूबी बन गये हैं। “फ़ंड का फ़ंडा” बखूबी जानने वाले ये अफ़सर नेताओं की आँखॊं के तारे बने हुए हैं। यही वजह है कि इन्हें हमेशा ही मलाईदार विभागों की जिम्मेदारी मिलती रही है। इनमें से कई अभी भी सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं।


अफ़सरों के पास अकूत दौलत आने के महज़ दो ही ज़रिये हो सकते हैं – तबादले और मनमाफ़िक पोस्टिंग या फ़िर सरकारी खरीद में कमीशनखोरी। यहाँ यह तथ्य नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि दोनों तरह के काम विभागीय मंत्री की सहमति या नेताओं के दखल के बिना नहीं हो सकते। साठ दशक पार कर चुकी लोकशाही में अब यह बात ध्रुव सत्य सी आम जनता के ज़ेहन में बैठ चुकी है कि भ्रष्टाचार की बुनियादी जड़ तो नेता ही हैं। नेता के इशारे या इजाजत के बगैर अफसरों, माफियाओं की हालत कटे हुए पंख वाले पंछी की तरह होती है। सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार को पालने-पोसने वाले इस गठजोड़ पर कई बार चिंता ज़ाहिर की है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जनता के बीच हमेशा कहते हैं कि मैं ईमानदार हूं और भ्रष्टाचारी को प्रदेश में नहीं रहने दूंगा। यदि वास्तव में मुख्यमंत्री ऐसा चाहते हैं तो उन्हें मंत्रियों को “भ्रष्टाचार मुक्त समाज” के लिये जवाबदेह बनाना होगा। आयकर, लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू और भ्रष्टाचार रोकने के लिए अन्य एजेंसियों द्वारा की जाने वाली हर कार्रवाई में राजनेता तथा बड़े अफ़सर बच जाते हैं। प्रदेश स्तर की एजेंसियाँ भ्रष्ट अफसर को पकड़ भी लें तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति हासिल करना टेढ़ी खीर होता है। अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई के बाद मामला समाप्त हो जाता है, जबकि सरकार की सारी तत्परता पटवारी, तहसीलदार,सब इंजीनियर और लिपिक वर्गीय सरकारी मुलाज़िमों को सज़ा दिलाने में ही दिखाई देती है।

हाल ही के आयकर छापों से साबित हो गया है कि अरबों रूपयों की केन्द्रीय मदद का लाभ जनता को पहुंचने की बजाय भ्रष्ट अफसरों की तिजोरियों में जा रहा है। तमाम अफसरों व कारोबारियों के ठिकानों पर आयकर, लोकायुक्त व ईओडब्ल्यू ने कार्रवाई कर अकूत संपत्ति का पता लगाया है। सुप्रीमकोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक की टिप्पणियों पर गौर करें तो पाते हैं कि भ्रष्टाचार की असली जड़ नेता, अफसर और किस्म- -किस्म के माफियाओं का गठजोड़ है। चूंकि लोकतंत्र में कड़ी की शुरूआत नेता से होती है, इसलिए भ्रष्टाचार के लिए वे सबसे पहले जिम्मेदार हैं।

सियासत की अपनी अलग इक जुबां है…

राजनीति को नि:संदेह मानवता, देश तथा समाज के कल्याण हेतु सर्वोत्तम माध्यम कहा जा सकता है। बशर्ते कि राजनीति पूरी तरह ईमानदाराना, पारदर्शी, विकासोन्मुख तथा जन कल्याणकारी हो। ऐसे सांफ सुथरे राजनैतिक वातावरण की उम्मीद भी तभी की जा सकती है जबकि इस पेशे में शामिल राजनीतिज्ञ भी अपने पेशे के प्रति पूरी तरह सिद्धांतवादी ईमानदार, वफादार तथा उत्तरदायी हों। परंतु आज की राजनीति तथा राजनीतिज्ञों की परिभाषा तो कुछ और ही है। आज सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने को ही संफल राजनीति का हिस्सा समझा जाने लगा है। आज जनता यह महसूस करने पर मजबूर हो चुकी है कि जो नेता जितना बड़ा चतुर, चालाक, चापलूस, महत्वकांक्षी, स्वार्थी तथा तिकड़मबाज़ है वह उतना ही बडा व सफल नेता है। और जब ऐसे ही लोगों के हाथों में देश की राजनीति चली जाए तो देश, समाज,व मानवता के कल्याण की उम्मीदें रखना सर्वथा बेमानी है। बजाए इसके यही समाज व जनता नकारात्मक राजनैतिक दुष्परिणामों को समय समय पर झेलने के लिए मजबूर रहती है। और इसी दौरान यही नकारात्मक राजनीति के विशेषज्ञ जनता को कुछ दें या न दें परंतु इनकी अपनी पगार, सरकारी ऐशो आराम, जनता के खून पसीने की कमाई से सरकारी खर्च पर की जाने वाली अपनी व अपने परिवार की ऐशपरस्ती में कोई कमी नहीं आने देते।
हालांकि हमारा देश ऐसे सर्वगुण संपन्न नेताओं से भरा पड़ा है। शरद पवार भी देश के ऐसे ही एक ‘विचित्र राजनीतिज्ञ’ का नाम है। महाराष्ट्र में अपनी जबरदस्त पैठ रखने वाले पवार का राजनैतिक संफर भी ‘विचित्र’ है। पवार शुरु से ही कांग्रेस में रहे, फिर कांग्रेस से मतभेद हुआ और अपनी कांग्रेस बनाई। उसके बाद पुन: कांग्रेस में लौटे। फिर जब यह देखा कि कांग्रेस में रहते हुए प्रधानमंत्री के पद तक संभवत: नहीं पहुंचा जा सकेगा तब आपने एक बार फिर कांग्रेस पार्टी यह कह कर छोड़ दी कि सोनिया गांधी विदेशी मूल की हैं और वे एक ‘राष्ट्रवादी’ भारतीय नागरिक होने के नाते उन्हें प्रधानमंत्री बनते नहीं देख सकते। हालांकि उस समय आम लोगों को शरद पवार के इस क़ दम से बड़ी हैरानी इसलिए हुई थी क्योंकि सोनिया गांधी को राजनीति में सक्रिय करने के सबसे अधिक प्रयास शरद पवार द्वारा ही किए गए थे। फिर आंखिर सोनिया की सक्रियता के बाद पवार की नारांजगी के क्या मायने थे।
दरअसल यही तो ‘राजनीति’ है। ख़ासतौर पर शरद पवार जैसे ‘दूरअंदेश’ नेताओं की। वास्तव में पवार सोनिया की राजनीति में सक्रियता केवल इसलिए चाहते थे कि वे कांग्रेस को मंजबूत करें जिसका लाभ शरद पवार को प्रधानमंत्री बनने में मिल सके। परंतु यहां तो उल्टा हो गया। सोनिया गांधी राजनीति में सक्रिय होते ही आम लोगों के दिलों पर धीरे-धीरे राज करने लगीं। जनता में उनकी स्वीकार्यता इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में होने लगी। इस प्रकार कुछ ही समय में वे न केवल कांग्रेस बल्कि पूरे देश के राजनैतिक क्षितिज पर छा गईं। पवार ने फिर अपनी राह पकड़ी। कल तक जिस सोनिया की राजनीति में सक्रियता में उन्हें अपना भविष्य उज्‍जवल दिखाई देता था वही सोनिया गांधी अब विदेशी हो गईं और शरद पवार ‘राष्ट्रवादी कांग्रेसी’ बन गए। यहां इस एक मात्र केंद्रीय अवधारणा को अपने जहन में रखने की जरूरत है कि पवार का एकमात्र लक्ष्य प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचना मात्र है।
अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भाजपा ने इंडिया शाईनिंग का ढिंढोरा पीटा। चुनाव हुए और वाजपेयी की एनडीए सरकार पराजित हुई। धर्मनिरपेक्ष संगठन कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट हुए तथा यूपीए सरकार का गठन हुआ। सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता कांग्रेस सांसदों ने चुना। सोनिया प्रधानमंत्री पद के बिल्कुल करीब जा खड़ी हुई। उस समय शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस भी इस पूरे घटनाक्रम की भागीदार थी। पवार ने कोई विरोध नहीं किया। यह बात और थी कि अपनी दूरदृष्टि तथा निस्वार्थ राजनीति करने के मद्देनजर सोनिया ने स्वयं प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया। परंतु पवार उस समय सोनिया के पीछे खड़े जरूर दिखाई दिए। कुछ ही समय के बाद इन्हीं स्वयंभू राष्ट्रवादी नेताओं ने यह कहना शुरु कर दिया कि सोनिया गांधी का विदेशी मूल का मुद्दा अब समाप्त हो चुका है। गोया पवार जी जब सीटी बजा दें उस समय सोनिया विदेशी मूल की हो गर्इं और जब पुन: सीटी बजाएं तो वे स्वदेशी मूल की हैं। यानि देश की जनता उनकी सीटी सुनकर उससे कदम ताल मिलाए यह इच्छा रखते हैं पवार जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञ।
पवार की राजनीति की कुछ और बानगी गौर कीजिए। इन दिनों महंगाई को लेकर काफी शोर-शराबा चल रहा है। पवार देश के कृषि एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री हैं। विपक्षी पार्टिया यूपीए सरकार को बढ़ती मंहगाई के लिए दोषी ठहरा रही हैं। जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारत में बढ़ती मंहगाई को वैश्विक मंहगाई से जोड़कर देख रहे हैं। इसके बावजूद यूपीए सरकार बढ़ती मंहगाई पर लगाम लगाने के अनेक प्रयास कर रही है। इस बीच पवार साहब के वक्तव्य ऐसे आ रहे हैं गोया सरकार के बीच कोई ‘विभीषण’ आकर खड़ा हो गया हो। कभी मंहगाई पर लगाम लगने की समय सीमा बताने को लेकर आप फरमाते हैं कि मैं ज्योतिषी थोड़े ही हूं। तो कुछ ही दिन बाद आप ज्योतिषी की भूमिका भी अदा करते दिखाई देते हैं। और दावा ठोंक देते हैं कि 15 दिन में मंहगाई नियंत्रण में आ जाएगी। कभी चीनी का दाम बढ़ने की भविष्यवाणी करते हैं तो कभी दूध की कीमत में उछाल आने की संभावना व्यक्त करते हैं। जाहिर है जब केंद्र सरकार का एक जिम्मेदार मंत्री ऐसी गैंरंजिम्मेदाराना बातें करे तो ऐसे में व्यापारी वर्ग को प्रोत्साहन मिलता है और वह पवार द्वारा व्यक्त की जाने वाली संभावनाओं को पुष्प अर्पित करते हुए उन वस्तुओं की तत्काल कीमत भी बढ़ा देता है। अब यहां फिर वही सवाल उठता है कि पवार की इस प्रकार की बयानबांजी के पीछे छुपा मंकसद क्या हो सकता है? उस यूपीए सरकार को बदनाम करना जिसका नेतृत्व कांग्रेस पार्टी कर रही है या कुछ और? उधर कांग्रेस प्रवक्ताओं की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है कि पवार जी अपने मंत्रालय के जिम्मेदार वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री हैं तथा उन्हें यह अधिकार है कि वे कैसे मंहगाई जैसी समस्याओं से निपटें। परंतु वे मंहगाई से निपटने के बजाए मंहगाई बढ़ने की भविष्यवाणियों को तरजीह दे रहे हैं।
अब जरा गौर कीजिए पवार से जुड़ी महाराष्ट्र संबंधी राजनीति पर। याद रहे कि ठाकरे एसोसिएटस की शिवसेना ने राहुल गांधी के मुंबई दौरे को बाधित करने की चेतावनी दी थी। उन्हें काले झंडे दिखाने व विरोध प्रदर्शन करने की शिवसेना ने योजना बनाई थी। परंतु राहुल गांधी ने जिस अंदांज से अपनी मुंबई यात्रा पूरी की वह भी पूरे देश ने देखा। उनकी लोकल ट्रेन की यात्रा, ए टी एम से पैसे निकालना व लाईन में खड़े होकर लोकल टे्रन का टिकट लेना व छात्रों से किए गए उनके संवाद ने शिवसेना के हौसले पस्त कर दिए थे। साथ ही साथ राहुल गांधी को उनके बुलंद हौसले के लिए कांफी मुबारकबादें मिली थीं। पूरे महाराष्ट्र राज्य पर राहुल गांधी के मुंबई दौरे का सकारात्मक प्रभाव पड़ा था। राहुल की मुंबई यात्रा के मात्र दो ही दिन बाद शरद पवार उस बाल ठाकरे से मिलने उनके मुख्यालय जा पहुंचे जिसने कि मुंबई के बहाने पूरे राज्य में क्षेत्रवाद व वर्गवाद फैलाने का ठेका ले रखा है। पवार की ठाकरे से हुई इस मुलांकात के फौरन बाद ही ठाकरे का दिमाग फिर सातवें आसमान पर चला गया। उनके शिवसैनिक बाल ठाकरे के पवार द्वारा किए गए महिमा मंडन से उर्जा पाकर शाहरुख़ ख़ान की फिल्म माई नेम इज ख़ान का हिंसक विरोध करने सड़कों पर उतर आए।
आख़िर क्या जरूरत थी ऐसे राष्ट्रविभाजक तत्वों के आगे पवार के घुटने टेकने की? एक केंद्रीय मंत्री होने के नाते उनका ठाकरे के पास जाना केंद्र सरकार का सीधा अपमान है। और वह भी इसलिए गए ताकि ठाकरे आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को भारत में क्रिकेट मैच खेलने दें। जरा यहां पवार जैसे राजनीतिज्ञों की राजनीतिक बानगी पर बहुत सूक्ष्म नंजरें रखने की जरूरत है। प्रश्न यह है कि पवार का ठाकरे के पास जाकर गिड़गिड़ाना पवार की मजबूरी या कमजोरी का एक हिस्सा था या फिर वे बाल ठाकरे को यह जताना चाह रहे थे कि पवार की नंजर में ठाकरे अब भी शिवसेना का वह शेर है जिसकी मर्जी के बिना मुंबई या महाराष्ट्र में कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब यहां एक और प्रश्न यह उठता है कि पवार ऐसा क्यों प्रदर्शिंत करना चाहते हैं। यहां यह याद करने की जरूरत है कि बाल ठाकरे ने प्रधानमंत्री बनने की दशा में शरद पवार का समर्थन करने की बात कही थी। केवल इसलिए कि पवार मराठी मानुस हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि विपरीत राजनैतिक ध्रुव होने के बावजूद शिवसेना ने कांग्रेस की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को केवल इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे मराठा परिवार से हैं। शरद पवार ने बाल ठाकरे के समक्ष नतमस्तक हो कर दो और अलग संदेश छोड़ने की कोशिश की है। एक तो यह कि राहुल गांधी बाल ठाकरे की तांकत को मानें या न मानें, उनकी राजनैतिक शख्सियत को अहमियत दें या न दें परंतु पवार तो देंगे ही। और दूसरे यह कि कहीं न कहीं पवार ने यह भी प्रमाणित करने की कोशिश की है कि कांग्रेस के नेतृत्व की सरकारों के दौर में प्रशासन व शासन बिना बाल ठाकरे की मंर्जी के संभवत: महाराष्ट्र में क्रिकेट मैच नहीं करवा सकेगा। आलोचक खुलेआम यह कह रहे हैं कि राहुल गांधी ने अपने मुंबई दौरे से जिस प्रकार बाल ठाकरे व शिसेना के हौसले पस्त किए थे ठीक उसके विपरीत शरद पवार ने मातोश्री में नतमस्तक होकर राहुल के किए कराए पर पानी फेर दिया। शायद राजनेताओं के ऐसे ही नकारात्मक फैसलों से प्रभावित होकर शायर ने कहा है कि -
सियासत की अपनी अलग इक जुबां है। जो लिखा हो इंकरार, इनकार पढ़ना॥

पानी के लिए लोग होंगे पानी-पानी – imran haider

आज विश्व की लगभग एक अरब आबादी को जल के लिए तरसना पड़ रहा है। भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, ब्राजील जैसे तमाम विकासशील देशों में लाखों लोग गंदे पानी से पैदा होनेवाली बीमारियों के कारण मौत के ग्रास बन जाते हैं। धरती के संपूर्ण जल में साफ पानी का प्रतिशत 0.3 से भी कम है। आनेवाले अगले 20 वर्षों में खेती, उद्योग सहित अन्य क्रियाकलापों के लिए 57 फीसदी अतिरिक्त जल की आवश्यकता होगी। कुछ दशक पूर्व पर्यावरणविदों एवं जल विशषज्ञों ने भविष्यवाणियां की थीं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। इस टिप्पणी पर उस वक्त दुनियावालों को विश्वास नहीं हुआ था। अलबत्ता, चेतावनी के बावजूद जल का दोहन तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की मानव समुदाय द्वारा करतूतें जारी रहीं। किंतु जब गत वर्ष 14 मई को भोपाल में पेयजल के लिए एक ही परिवार के तीन लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई तो यह आशंका और भी बलवती हो गई। पिछले दिनों भोपाल में इस तरह की दो-तीन घटनाएं घटित हो चुकी हैं। पानी की किल्लत की वजह से पानी पर आधारित उज्जैन के लगभग आधे उद्योग-धंधे चौपट हो गए। भोपाल ही क्यों? उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड से लेकर बिहार के कैमूर तक पानी को लेकर हाहाकार है। तकरीबन दो साल पहले बिहार के मुजफ्फरपुर प्रमंडल के भूगर्भ जल सर्वेक्षण विभाग ने मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण के कुछेक प्रखंडों में भूजल की उपलब्धता पर सर्वे कराया था। सर्वे से जो तथ्य सामने आए, वे राज्य में बढ़ते जल संकट की ओर इशारा करते हैं। इन प्रखंडों में जितना पानी जमा होता है उससे 70 फीसदी ज्यादा पानी निकल रहा है। यानी पानी के रिचार्ज और ड्राट का अंतर 70 फीसदी का है। समय रहते यदि चेता नहीं गया तो आने वाले दिनों में उत्तर बिहार में भी लोग पानी के लिए तरसेंगे। खेत, हैंडपंप, कुएं सूख जाएंगे। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की बात करें अथवा पूर्वोत्तर एवं दक्षिणी राज्यों की, एक बड़ी आबादी पेयजल के लिए तरस रही है। सर्वाधिक बारिश के लिए प्रसिद्ध मेघों के प्रदेश मेघालय का चेरापूंजी भी इस समस्या से अछूता नहीं रहा। यहां गत वर्ष औसत से आधी वर्षा रिकार्ड की गई। फलस्वरूप, यहां का भूमिगत जल विभाग भी भूजल स्तर नीचे जाने की आशंका से चिंतित है। पूर्वोत्तर के सातों प्रांतों यथा-असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड को बीते वर्ष औसत से कम बारिश के कारण सूखे का संकट झेलना पड़ा। बेहिसाब बढ़ती आबादी, औद्योगिकीकरण का विकास और इन्द्र भगवान के रूठ जाने से भूजल पर निर्भर हमारी खेती ने पानी की मांग बढ़ा दी है। विश्व में प्रति वर्ष 8 करोड़ लोगों की वृध्दि जारी है। बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग 64 अरब घन मीटर स्वच्छ जल की मांग बढ़ रही है। भारत में भी जहां विश्व की कुल आबादी के 16 फीसदी लोग रहते हैं, वहां विश्व के कुल भू-भाग का केवल 2.45 फीसदी भाग ही हमारे पास है। स्वामीनाथन कमिटी का आकलन है कि वर्ष 2025 में कृशि कार्य के लिए पानी का मौजूदा हिस्सा 83 फीसदी से घटकर 74 फीसदी रह जाएगा। क्योंकि तब अन्य क्षेत्रों में पानी की मांग बढ़ चुकी होगी। माना जा रहा है कि तब पानी की कमी के चलते देश में अनाज की पैदावार 25 फीसदी तक घटने का खतरा है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, प्रत्येक साल प्रति व्यक्ति जल की कुल खपत 1022.7 क्यूबिक मीटर है। सन 2000 में जल की मांग प्रति व्यक्ति 634 क्यूबिक मीटर थी, जबकि 2025 तक यह बढ़कर 1093 मीटर हो जाएगी। सन 2004 में स्वीडन में संपन्न विश्व जल सम्मेलन में विशेषज्ञों ने जल संकट से पैदा होनेवाली अकाल जैसी स्थिति के लिए आगाह किया था।
केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड के एक अनुमान के अनुसार, अगर भूमिगत जल के अंधाधुंध प्रयोग का सिलसिला जारी रहा तो देश के 15 राज्यों में भूजल का भंडार 2025 तक पूरी तरह खाली हो जाएगा। हालांकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जल की उपलब्धता को लेकर की जा रही चिंता उतनी गंभीर नहीं है, बशर्ते असमान जल वितरण एवं घटिया जल प्रबंधन की मानसिकता से हम उबर जाएं। नदी जोड़ योजना पर भी सरकार गंभीर नहीं दिखती है। याद रहे कि इन समस्याओं से लड़ना केवल सरकार के बूते की बात नहीं है। एक-एक व्यक्ति को आगे आना होगा। आनेवाले वक्त में हमारे नल, हैंडपंप, कु एं आदि प्यासे न रह जाएं, हमें आज से ही कुछ उपायों पर पहल शुरू कर देनी चाहिए। जल संकट के समाधान के लिए जल संग्रह करना एवं कंजूसी से पानी खर्च करना सबसे उत्तम उपाय है। वर्षा ऋतु में जो अतिरिक्त पानी बहकर निकल जाता है, इस पानी का संग्रह करना ही जल संग्रह कहलाता है। वर्षा के जल का संचय विेशेष रूप से बताए गए तालाबों, कुओं, बावड़ियों या अन्य जलाशयों में किया जा सकता है। बाढ़ के पानी की विशाल मात्रा समुद्र में समाहित हो जाती है। मिट्टी भर दिए गए कुओं व तालाबों का पुनर्ररुध्दार कर बाढ़ के पानी को संग्रहित करने से भूमिगत जल रिचार्ज होगा। जल संग्रह के और कई तरीके हैं, जैसे- मकानों के छतों पर इकट्ठा होने वाले जल को एक टैंक में जमाकर पाइप के जरिये उसे जमीन के अंदर जाने दें। इस तरह भूमि के अंदर का पेयजल रिचार्ज होगा। इस विधि को रेनवाटर हार्वेस्टिंग कहते हैं। मेघालय जैसा वर्षा बहुल प्रदेश में पानी का सही प्रबंधन नहीं होने की वजह से पानी की कमी महसूस की जाने लगी है जबकि मरुस्थलीय प्रदेश राजस्थान में सामुदायिक भागीदारी से सैकड़ों जोहाड़ (तालाब) बनाकर उसमें वर्षाजल संग्रह किया गया। फलतः मरुस्थल पानी-पानी हो गया। इधर, केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने भी प्रशंसनीय कदम उठाते हुए दिल्ली तथा अन्य शहरों में स्थित सरकारी भवनों पर जल संग्रह करने का विभागों को निर्देश दिया है। खबर है कि मेघालय में भी रेनवाटर हार्वेस्टिंग पर काम हो रहा है।
बहरहाल, जरूरत है जन भागीदारी की, एक-एक बूंद बचाने का संकल्प लेने की। कहीं भी नल खुले देखें तो बंद कर दें। सब्जी, दाल, चावल धोने के बाद शेष बचे पानी को पेड़-पौधे में डाल दें। बच्चे अपने जन्मदिन पर कम-से-कम दो-चार पेड़ अवश्य लगाएं। गाड़ी धोने के लिए पानी का उपयोग बाल्टी से करें, पाइप से नहीं। ये छोटे-छोटे कदम आने वाली पीढ़ी को प्यास से बिलबिलाने नहीं देगी।imran991122@gmail.com

चल रही ज्ञान पर एकाधिकार की साजिशः imran haider

कथादेश के संपादक हरिनारायण को बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान
25 each 4x6 1 350x233 चल रही ज्ञान पर एकाधिकार की साजिशः सुलभबिलासपुर। कथाकार एवं संस्कृतिकर्मी ह्रषिकेश सुलभ का कहना है कि भूमंडलीकरण के युग में ज्ञान के क्षेत्र में एकाधिकार की साजिश चल रही है। जो भी सुंदर है, शुभ है और मंगल है उसका हरण हो रहा है। मीडिया का स्वरूप भस्मासुर की तरह है लेकिन वहां भी मंगल और शुभ है, जिसके लिए तमाम पत्रकार संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान में लोग साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति उदासीन हैं, इसलिए सच सामने नहीं आ पा रहा है। श्री सुलभ बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के लायंस भवन में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण को मुख्यअतिथि प्रख्यात कवि,कथाकार एवं उपन्यासकार विनोदकुमार शुक्ल ने यह सम्मान प्रदान किया। सम्मान के तहत शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह, प्रमाणपत्र और ग्यारह हजार रूपए नकद प्रदान कर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में किसी यशस्वी संपादक को सम्मानित किया जाता है। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा (इंदौर) के संपादक रहे स्व. श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथप्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।
श्री सुलभ ने पत्रकारिता के सामने मौजूद संकटों की विस्तार से चर्चा की और कहा कि वर्तमान में उद्योगों के साथ अखबारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है ऐसे में साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े लोगों को साहस दिखाने की जरूरत है ताकि मीडिया पर गलत तत्वों का कब्जा न हो जाए। उन्होंने कहा कि कथादेश के संपादक हरिनारायण लोकमंगल के लिए काम रहे हैं, उनका सम्मान गौरव की बात है।
20 each 4x61 350x142 चल रही ज्ञान पर एकाधिकार की साजिशः सुलभकार्यक्रम के मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने कहा कि इस सम्मान ने प्रारंभ से ही अपनी प्रतिष्ठा बना ली है। एक अच्छा पाठक होने के नाते हरिनारायण को यह सम्मान देते हुए मैं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं। कवि-कथाकार जया जादवानी ने कहा कि शब्दों का जादू मनुष्य को जगाता है, दुख है कि पत्रकारिता इस जादू को खो रही है। पत्रकारिता समाज के मन से मनुष्य के मन तक का सफर कर सकती है। साहित्य मनुष्य के मन को सूकून देता है। वरिष्ठ पत्रकार और छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर ने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता दो अलग ध्रुव बन गए हैं। समाचारों में मिलावट आज की एक बड़ी चिंता है। इसी तरह खबरों की भ्रूण हत्या भी हो रही है।
बख्शी सृजनपीठ, भिलाई के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र का कहना था कि जो समाज पूर्वजों के योगदान को भूल जाता है वह आगे नहीं बढ़ सकता। निरक्षर भारत की अपेक्षा आज के साक्षर होते भारत में समस्याएं बढ़ रही हैं। ऐसे समय में साहित्यकारों को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। साहित्य अकादमी, दिल्ली के सदस्य और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि इस विपरीत समय में साहित्यिक पत्रिका निकालना बहुत कठिन कर्म है। कथादेश एक अलग तरह की पत्रिका है, इसमें साहित्यिक पत्रकारिता के तेवर हैं और देश के महत्वपूर्ण लेखकों के साथ नए लेखकों को भी इसने पहचान दी है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह ने कहा कि वर्तमान की चुनौतियों का सामना हम तभी कर सकते हैं जब सहित्य, पत्रकारिता और समाज तीनों मिलकर काम करें। उन्होंने कहा कि यह सम्मान साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों का सेतु बनता हुआ दिख रहा है। मीडिया विमर्श के संपादक डा. श्रीकांत सिंह ने साहित्य के संकट की चर्चा करते हुए कहा कि संकट के दौर का साहित्य ही सच्चा और असरदार साहित्य होता है। पत्रकारिता के अवमूल्यन पर उन्होंने कहा कि पाठक सूचनाओं से वंचित हो रहे हैं। भूमंडलीकरण के नशे में मीडिया पैसे के पीछे भाग रहा है, इससे देश या प्रदेश का विकास नहीं होगा। साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल (बस्ती, उप्र) के संपादक डा. परमात्मानाथ द्विवेदी ने समाज में बाजार की भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि इससे सारे रिश्ते खत्म हो रहे हैं। इस स्थिति से हमें सिर्फ साहित्य ही जूझने की शक्ति दे सकता है।
इस मौके पर सम्मानित हुए संपादक हरिनारायण ने अपने संबोधन में कहा कि इसे छद्म विनम्रता ही माना जाएगा यदि मैं कहूं कि इस सम्मान को प्राप्त कर मुझे खुशी नहीं हो रही है। बल्कि इसे मैं एक उपलब्धि की तरह देखता हूं। मेरी जानकारी में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए यह तो अकेला सम्मान है। उन्होंने कहा कि मैंने शुऱू से रचना को महत्व दिया। कथादेश में संपादकीय न लिखने के प्रश्न का जवाब देते हुए हरिनारायण ने कहा कि इसे लेकर शुरू से ही मेरे मन में द्वंद रहा है। क्योंकि वर्तमान परिवेश में अधिकतर संपादकीयों में अपने गुणा-भाग, आत्मविज्ञापन, झूठे दावे, सतही वैचारिक मुद्रा,उनके अंतविर्रोध या रचना की जगह अपने हितकारी लेखकों का अतिरिक्त प्रोजेक्शन ही नजर आता है। जिससे साहित्य का वातावरण दूषित हुआ है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष श्यामलाल चतुर्वेदी ने कहा कि अखबारों ने जमीनी समस्याओं को निरंतर उठाया है किंतु आज उनपर सवाल उठ रहे हैं तो उन्हें अपनी छवि के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि शब्दों की सत्ता से भरोसा उठ गया तो कुछ भी नहीं बचेगा।
कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण बेनीप्रसाद गुप्ता ने किया। संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर ने तथा आभार प्रदर्शन बिलासपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष शशिकांत कोन्हेर ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार, साहित्यकार, पत्रकार एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख रूप से रविवार डाट काम के संपादक आलोकप्रकाश पुतुल, पत्रकार नथमल शर्मा, कथाकार सतीश जायसवाल, रामकुमार तिवारी, संजय द्विवेदी, भूमिका द्विवेदी, कपूर वासनिक,डा. विनयकुमार पाठक, डा. पालेश्वर शर्मा, सोमनाथ यादव, अचिंत्य माहेश्वरी, प्रवीण शुक्ला, हर्ष पाण्डेय, यशवंत गोहिल, हरीश केडिया, बजरंग केडिया, पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश वाजपेयी, बलराम सिंह ठाकुर, पं. रामनारायण शुक्ल, व्योमकेश त्रिवेदी आदि मौजूद रहे। इस अवसर मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी स्मृति अंक का विमोचन किया। इसके अलावा उप्र के बस्ती जिले से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल के नवीन अंक का विमोचन भी हुआ।imran991122@gmail.com

ठाकरे के दरबार में पवार!

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने शिवसेना के सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे के आवास ”मातोश्री” की चौखट चूमकर साबित कर दिया है कि देश में सरकार नाम की चीज ही नहीं बची है। पवार ने यह सियासी दांव तब खेला जबकि कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी द्वारा शिवसेना की गीदड भभकियों को दरकिनार कर महाराष्ट्र में मुंबई का दौरा किया। इसके पहले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने देशद्रोह जैसे वक्तव्य भी दिए हैं, पर उनका बाल भी बांका करने में असफल दिख रही है केंद्र और सूबे की सरकार।
देखा जाए तो पवार ने कहा है कि उनकी बाला साहेब से मुलाकात का सियासी मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए, वे तो महज आईपीएल मैच के आयोजनों के मद्देनजर ठाकरे से भेंट करने गए थे। गौरतलब है कि ठाकरे ने आईपीएल में आस्ट्रेलिया के खिलाडियों को नहीं खेलने देने की बात कही थी। हो सकता है आस्टे्रलिया में हो रहे भारतीयों पर हमले से बाला साहेब व्यथित हो गए हों और उन्होंने यह फरमान जारी कर दिया हो।
शरद पवार यह भूल जाते हैं कि सुरक्षा देने का काम केंद्र या राज्य सरकार का है, न कि बाला साहेब ठाकरे का। वैसे भी एक सप्ताह पहले देश के गृह मंत्री पलनिअप्पन चिदंबरम ने साफ कहा था कि केंद्र सरकार पूरे देश में बाहर से आने वाले क्रिकेटरों को सुरक्षा देने के लिए तैयार है। ठाकरे ब्रदर्स द्वारा मुंबई और समूचे महाराष्ट्र में लंबे समय से आंतक बरपाया जा रहा है, और केंद्र तथा राज्य सरकार हाथ पर हाथ धरे ही बैठी है। केंद्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कांग्रेस की सहयोगी है, इधर राज्य में दोनों ही की न केवल साझा सरकार है, वरन् गृह मंत्रालय जैसा अहम विभाग राकांपा के पास ही है।
पवार ने जो दिन चुना वह ही गलत कहा जा सकता है। पंवार ने राहुल गांधी की मुंबई यात्रा के एन दूसरे दिन ही मातोश्री की देहरी चूमी है। ठाकरे परिवार की धमकियों की परवाह न करते हुए राहुल गांधी ने जिस बहादुरी का परिचय दिया है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। राहुल गांधी ने उस मिथक को तोड दिया है, जिसके अनुसार मुंबई में ठाकरे बंधुओं की अनुमति के बिना पत्ता भी नहीं हिलना बताया जाता है। मुंबई ठाकरे परिवार की जायदाद नहीं है। पहले भी मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव कह चुके हैं कि बाला साहेब ठाकरे का परिवार मुंबईकर नहीं वरन् मघ्य प्रदेश के बालाघाट जिले का है।
हो सकता है कि मुंबई यात्रा के बाद राहुल गांधी को जो प्रसिध्दि मिल रही है, उसे कम करने की गरज से शरद पवार ने बाला साहेब के चरणों में गिरकर क्रिकेट के सफल आयोजन की भीख मांगने का स्वांग रचा हो। पंवार यह भूल गए कि ठाकरे की इस तरह की चरण वंदना से राज्य सरकार के मनोबल पर क्या असर पडेगा। राज्य सरकार पहले ही ठाकरे ब्रदर्स की आताताई हरकतों से परेशान है, फिर इस तरह के कृत्यों से रहा सहा मनोबल टूटना स्वाभाविक ही है।
कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि देश में बढती मंहगाई के लिए कांग्रेस द्वारा पवार को आडे हाथों लिया जाना उन्हें रास नहीं आया है। साम, दाम, दण्ड भेद की राजनीति में माहिर पवार का राजनैतिक इतिहास बहुत ज्यादा साफ सुथरा नहीं है। कल तक कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को गला फाडकर चिल्लाने वाले राकांपा के सुप्रीमो पवार ने सत्ता की मलाई खाने के लिए न केवल केंद्र बल्कि राज्य में भी उन्हीं सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस से हाथ मिला लिया।
वैसे राहुल गांधी के मुंबई दौरे क बाद एक बात तो साफ हो गई है कि अगर सूबे की सरकार चाहे तो वह महाराष्ट्र से ठाकरे ब्रदर्स की हुडदंग को समाप्त कर सकती है। जब सेना की धमकी के बाद भी राहुल गांधी बेखौफ होकर मुंबई में घूम सकते हैं तब फिर जब ठाकरे ब्रदर्स के इशारे पर उत्तर भारतीयों पर यहां जुल्म ढाए जाते हैं, तब सरकार सेना के सामने मजबूर क्यों हो जाती है, यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।
पंवार की ठाकरे के दरबार में हाजिरी पर कांग्रेस भी बंटी ही नजर आ रही है। एक तरफ प्रदेश इकाई द्वारा इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी जाती है, तो दूसरी ओर केंद्रीय इकाई के प्रवक्ता द्वारा इसे सिर्फ क्रिकेट तक सीमित रखने की बात की जा रही है। उधर शिवसेना और भाजपा के हनीमून समाप्त होने के बाद उपजे शून्य में पंवार कुछ संभावनाएं अवश्य ही तलाश रहे होंगे।
राजनीति की परिभाषा ही यही है कि जिस नीति से राज हासिल हो वही राजनीति है। इस पर अमल करते हुए शरद पवार द्वारा सोचे समझे कदम उठाए जा रहे हैं, यही कारण है कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को उछाल कर पंवार ने कांग्रेस का साथ छोडकर अपनी अलग पार्टी बना ली थी। इसके बाद सोनिया की कांग्रेस से हाथ मिलाने में उन्होंने एक मिनिट की भी देरी नहीं लगाई।
आज महाराष्ट्र में भले ही कांग्रेस की सीटें राकांपा से कहीं ज्यादा हों पर सूबे में दबदबा राकांपा का ही है। इन परिस्थितियों में पंवार द्वारा बाला साहेब ठाकरे की शरण में जाकर नए सियासी समीकरणों का ताना बाना बुनने का प्रयास किया जा रहा हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमारा कहना महज इतना ही है कि अगर विदेशों में पले बढे और शिक्षित हुए राहुल गांधी उत्तर भारतीय होकर मुंबई की लोकल रेल में सफर कर सकते हैं तो फिर दूसरे उत्तर भारतीयों पर अत्याचार कैसे हो जाता है। इसके अलावा शरद पंवार सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, वे सूबे की नब्ज अच्छे से पहचानते हैं, ठाकरे परिवार का उदय भी उन्हीं के सामने हुआ है, पंवार सियासत करें खूब करें, पर कम से कम मुंबई और महाराष्ट्र को प्रांतवाद, भाषावाद और व्यक्तिवाद की आग में झुलसने तो बचाएं।

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