Saturday, February 13, 2010
शाहरुख खान एक्टविस्ट नहीं है राजदीप सरदेसाई
शाहरूख की भारतीय जनता से जो अपील है वह हमारे भारतीय कहलाने पर शर्म पैदा कर रही है। एक आजाद मुल्क में शाहरूख खान के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह किसी भी तरह से नस्ली हमले से कम नहीं है। फासीवाद का यह हमला हिन्दी फिल्मों पर नया नहीं है। यह सबको मालूम है कि हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं और कलाकारों को कई तरह के दबावों में काम करना पड़ता है।
सी एन एन आई बी एन के राजदीप सरदेसाई चाहते हैं कि शाहरूख हर इस तरह के फासीवादी हमले पर बोलें। टैक्सी ड्राइवरों के मुद्दे पर भी उन्हें बोलना चाहिए यानि कि फिल्म अभिनेता के साथ-साथ एक्टिविस्ट की भूमिका भी निभानी चाहिए। शाहरूख एक अभिनेता हैं। अभिनेता से नेतागिरी की मांग करना कहाँ तक जाएज है। एक व्यक्ति अपने पेशे में ईमानदार रहे, लगन और मेहनत के साथ काम करे, इच्छा नहीं है तो एक्टिविस्ट न बने, यह गलत कैसे है? शाहरूख ने अपनी बात साफगोई के साथ रखी कि मैं रियल लाईफ हीरो बनने की कोशिश नहीं करता फिल्मों में बन जाउ यही बहुत है। अब शायद मुझे चड्ढी, बनियान और अन्य चीजों की तरह ही अपनी देशभक्ति का भी प्रचार करना पड़ेगा और इस तरह के अन्य हमलों का विरोध करना पड़ेगा।
शिवसेना के लोगों ने मुम्बई के मुलुण्ड में भारी तोड़फोड़ किया है। इस फिल्म की अग्रिम टिकटों की बिक्री के समय यह सारी घटना घटी। अपने पहले के बयानों से पलटते हुए ‘सामना’ में लेख छपा जिसमें कहा गया कि शिवसैनिक अब शाहरूख की फिल्म का विरोध नहीं करेंगे। लेकिन जब 8 फरवरी को फिल्म की अग्रिम टिकटें बिकनी शुरू हुईं तो शिवसैनिकों ने हंगामा और तोड़फोड़ शुरू किया। 9 फरवरी की सुबह खबरों में दिखाया गया कि करण जौहर पुलिस सुरक्षा के लिए पुलिस के आला अधिकारियों से मिलने गए। उसके दो घण्टे बाद ही शिवसैनिकों की गतिविधियों की खबरें चैनलों की प्रमुख ख़बर बन गई।
फिल्म ‘माई नेम इज़ खान’ के बारे में अभी जो कुछ सामने आया है उससे इतना जाहिर है कि इस फिल्म में सत्ता और प्रशासन के एथनिक सप्रेशन के खिलाफ एक लाईन ली गई है। फासीवादी, नस्लवादी, राष्ट्रवादी पहचानों के ऊपर प्रेम और भाईचारे को, मानवीय रिश्तों को महत्वपूर्ण बताया गया है। भला यह किसी भी फासीवादी दल को कैसे बर्दाश्त हो सकता है। ‘माई नेम इज़ खान’ की जगह इस फिल्म का कोई और नाम शायद एशिया के संदर्भ में नस्लवादी पहचान की पेचीदगियों को इतनी बारीक़ी के साथ नहीं उभार सकता था। समूची पश्चिमी दुनिया के लिए अदर बना हुआ एशियाई समाज जिसकी ताकत से पश्चिम डरता है और जिसे वह कमज़ोर करना चाहता है अपने को इस नाम से आईडेन्टिफाई करता है। विशेष संदर्भ में फासीवादी ताक़तों के लिए भी यह नाम आसानी से हजम होनेवाला नहीं है। संयोग से फिल्म में काम करनेवाला हीरो भी एक खान ही है।
शाहरूख का लंदन में दिया गया बयान कि उन्होंने कोई गलती नहीं की तो क्यों और किससे माफी मांगें करोड़ों भारतीय जनता के दिलों के ज्यादा करीब था। लेकिन यह कोई फिल्म नहीं जिंदगी है! इसमें ‘फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ की तरह जनता निर्दोष को बचाने के लिए हजारों की संख्या में बाहर नहीं निकल जाती है। निकले भी कैसे एक तो वह हिन्दुस्तानी है दूसरे शाहरूख की नियत पर भी संदेह है कहीं वे फिल्म के प्रचार के लिए तो ये सब नहीं कर रहे? राजदीप सरदेसाई के सवाल के जवाब में शाहरूख ने तकलीफ और व्यंग्य के साथ कहा कि हां प्रचार तो बहुत मिल गया, बहुत नाम कमा लिया। शाहरूख की पिछली फिल्मों के रिर्काड देखें तो साफ है कि बिना किसी विवाद के भी उनकी फिल्मों ने भारत की विदेशों की जनता के दिलों पर राज किया है। उनकी किसी फिल्म की सफलता के लिए विवाद आयोजित करवाना जरूरी तो कतई
नहीं।
शाहरूख की खूबी है कि वे बहुत आत्मीय और निजी होकर बड़ी बात कह जाते हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। मीडिया ने इधर कुछ दिनों से लगातार उनकी गतिविधियों की रिपोर्टिंग की है। उनके लंदन में फिल्म के प्रमोशन से लेकर उनके बच्चों के गेम शो में तक में मीडिया उनके साथ रही है। अपने बच्चों की जीत पर टिप्पणी करते हुए शाहरूख कहते हैं कि उनके बच्चे उनसे ज्यादा निडर हैं। उन्होंने उनसे कहा कि पापा आप इंडिया आ जाओ सब ठीक है हम सबको हरा देंगे। इन बच्चों को मराठी भी आती है और वे एक ‘हिन्दू’ मा और ‘मुसलमान’ पिता की संतान हैं। शाहरूख़ का डर निराधार नहीं है कि उनके बच्चे कहीं बाप बनकर उनकी तरह डरने न लगें। वे चाहते हैं देश के सभी बच्चे, सभी नागरिक निर्भय होकर अपनी आजादी को जी सकें। क्या गलत चाहते हैं शाहरूख़। फासीवाद की यह मनोवैज्ञानिक लड़ाई क्या शाहरूख़ हार गए ? भय ही तो पैदा करता है फासीवाद। शाहरूख़ देश के हर नागरिक को निर्भय बनाना चाहते हैं। शाहरूख़ हार नहीं सकते अगर वे वैचारिक समझौता नहीं करते जैसाकि वे अभी टी वी पर कह रहे हैं। व्यक्तियों से मिलना, उनसे संपर्क रखना अलग बात है और इस तरह के फासीवादी हमलों से डरकर वैचारिक रूप में सहमत होना अलग। मैं नहीं जानती गौरी कितनी शर्मिंदा होंगी डरे हुए शाहरूख़ को देखकर। अभी-अभी खबर आ रही है कि घाटकोपर में भी शिवसेना के हमले शुरू हो गए हैं।
बाल ठाकरे अपनी थोकशाही के जरिए शाहरूख को अपने झण्डे तले ले लेना चाहते हैं। शिवसेना जो इस समय इतना हुंकार भर रही है उसका मकसद शाहरूख के साथ अपनी ट्यूनिंग पैदा करना है। दूसरी ओर यही शिवसेना आई पी एल के मसले पर गुलगपाड़ा मचा के शरद पवार के साथ भी अपने संबंधों को अपनी तरफ झुका कर रखना चाहती है। शाहरूख और आई पी एल दोनों पर शिवसेना की हुंकार हाल ही के विधानसभा चुनावों में शिवसेना की जबर्दस्त पराजय से ध्यान हटाने के लिए और सस्ती लोकप्रियता के जरिए अपने कैडरों को चंगा करने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है। शाहरूख की फिल्म चले या न चले, आई पी एल हो या न हो, आई पी एल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी खेलें या न खेलें, कोलकाता नाईट राइडर में पाकिस्तान के खिलाड़ी खेलें या न खेलें इन सबसे शिवसेना को कोई लेना-देना नहीं है। शिवसेना का मूल उदेश्य है महाराष्ट्र में अपनी खोई हुई जमीन को हासिल करना।
Subscribe to Posts [Atom]
Post a Comment